The Kashmir Files Movie Trailer And Review
क्यों चर्चा में है फिल्म द कश्मीर फाइल्स?
यह फिल्म कश्मीरी पंडितों की दास्तान को दिखा रहा इतिहास का वह काला सच है,जो अब तक बाकी दुनिया से छुपाया गया था। इसे दिखाने का साहस इस फिल्म के माध्यम से विवेक रंजन अग्निहोत्री ने किया है।विवेक रंजन अग्निहोत्री के शब्दों में यह फिल्म वास्तविक घटनाओं पर आधारित हैं।
फिल्म समीक्षक विपिन द्वारा की गई फिल्म समीक्षा जिसके माध्यम से इस फिल्म की पूरी कहानी को समझा जा सकता है एवं कश्मीरी पंडितों के दर्द को महसूस किया जा सकता है। वाकई में फिल्म देख कर लगता है की उन कश्मीरी पंडित हिंदुओं पर उस समय का तात्कालिक शासन किस प्रकार मोन हो गया था। एवं उन्हें अपने ही घर से बड़ी ही बेदर्दी से निकाल दिया गया था एवं अत्याचार की पराकाष्ठा की गई थी। विवेक रंजन अग्निहोत्री की यह अब तक की सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म है।
#कश्मीर_फाइल्स_समीक्षा by विपीन
कभी-कभी ऐसा भी होता है कि आप एकदम निःशब्द हो जाते हो, दिमाग सुन्न पड़ जाता है और धड़कने धीमी पड़ जाती हैं । ठीक कुछ ऐसा ही महसूस हो रहा था जब कश्मीर फाइल्स क्लाइमेक्स की तरफ बढ़ रही थी । फिल्म समाप्त हो गयी, लाइट्स जल गयी, स्क्रीन पर क्रेडिट्स दिखने बंद हो गए पर मेरा उठने का मन नहीं हो रहा था । एक अनजाना सा भारीपन दिमाग में था और कुछ भी सोच पाने की क्षमता थोड़ी देर के लिए चली गयी थी । ठीक ऐसा ही होलोकास्ट पर बनी कुछ और फ़िल्में मसलन शिंडलर लिस्ट, द पियानिस्ट आदि देखते समय भी महसूस हुआ था । द पियानिस्ट का एक दृश्य तो दिमाग में ऐसा अटक गया था कि 2-3 दिन तक मन उदास सा रहा ।
अदालती मामलों से निपटने के बाद कश्मीर फाइल्स आखिरकार आज रिलीज हो ही गयी । विवेक रंजन अग्निहोत्री ने अबतक का अपना सर्वश्रेष्ठ दिया है । साथ में उनके कदम से कदम मिलाकर उनकी पत्नी पल्लवी जोशी और वर्सेटाइल अभिनेता अनुपम खेर भी चलें हैं । अनुपम खेर ने एक कश्मीरी पंडित के दुःख-दर्द को पर्दे पर ऐसा जीवंत किया है कि आप देखकर हैरान रह जाते हो । इस अभिनय के लिए शायद उन्हें इसबार का रास्ट्रीय पुरस्कार भी मिल जाए ।
अगर फिल्म के समय अवधि की बात करें तो यह करीबन 170 मिनट लम्बी फिल्म है पर फिल्म इतनी कसी हुई है कि समय का पता ही नहीं चलता । हाँ दर्शन कुमार का एक लम्बा मोनोलाग है जो कुछ ज्यादा हो गया ऐसा लगता है पर समग्रता में फिल्म की कसावट बेहतरीन है ।
फिल्म की सिनेमेटोग्राफी भी कमाल की है , अँधेरे दृश्य, दूर तक फैली हिमालय की खुबसूरत नीरव चोटियाँ और लम्बे-लम्बे फैले बर्फीले पहाड़ भी ऐसा दिखाए गए हैं मानों कश्मीर पर किसी की बुरी नज़र लग गयी हो और कश्मीर की फिजा में भी बर्बरता की गंध घुली हुई हो।
फिल्म की कहानी मुख्य रूप से 30 सालों के समय अंतराल में फैली हुई है । कश्मीरी पंडितों का एक्सोडास (जिसे विवेक रंजन अग्निहोत्री बिना लाग-लपेट के नरसंहार कहते हैं) , उनके शरणार्थी बनकर जीवन बिताने का दुःख-दर्द , गन्दी राजनीति, दिल्ली द्वारा कश्मीर को असहाय छोड़ दिया जाना और इस्लामिक आतंकवाद इस फिल्म के मुख्य बिंदु हैं । फिल्म यह दिखा पाने में सक्षम है कि कैसे गन्दी राजनीती के चलते लगभग 5 लाख कश्मीरी अपना ही घर-बार छोड़कर पलायन को मजबूर हुए और कैसे उनकी जिन्दगी नर्क सरीखी हो गयी । कैसे कभी ऋषि कश्यप और शंकराचार्य की तपोभूमि पर बारूदों की गंध फैलने लगी और इस्लामिक आतंकवाद के साए में ‘कन्वर्ट हो जाओ, भागो या मरो’ और ‘ आजाद कश्मीर बिना पंडितों के उनकी औरतों के साथ’ जैसे नारों के बीच एक बड़ी आबादी को प्रताड़ित किया जाने लगा ।
कश्मीर मामले पर मैंने तमाम आलेख और किताबें पढ़ी हैं, बर्बरता की कहानियों को पढ़ना और उन्हें पर्दे पर देखना दोनों अलग-अलग होता है । जब आप 24 कश्मीरी पंडितों को एक कतार में खड़ा करके इस्लामिक आतंकियों द्वारा एक-एक करके गोली मारते देखते हो, या फिर सीधे आरे से किसी निर्वस्त्र महिला को चीर दिए जाना देखते हो या फिर एक पत्नी को बंदूक के दम पर मजबूर करके उसके पति के खून में सना चावल खाते देखते हो तो, आदमी होने पर, इतनी ज्यादतियों के बाद भी अबतक चुप रहने पर, शर्म आने लगती है । मेरे ख्याल से ऐसे मुद्दों पर मुख्य धारा सिनेमा में अबतक बस एक ही फिल्म ‘चिल्ड्रेन ऑफ़ वार’ है जो की ऐसे इस्लामिक आतंकवाद को स्पष्ट रूप से दिखाती है, हालाँकि यह फिल्म बंगाली हिन्दुओं के उत्पीडन और बांग्लादेश के जन्म के समय पैदा हुई भयंकर मानवीय त्रासदी पर आधारित थी । कश्मीर मामलों पर विधु विनोद चोपड़ा ने भी प्रयास किया था पर उसका कथानक कुछ और था और वे इस त्रासदी को ऊपर-ऊपर ही छूकर निकल गए थे ।
विवेक रंजन अग्निहोत्री सीधे बिना लाग-लपेट के इन मुद्दों को दिखाते हैं और यह भी बताते हैं कि कैसे नैरेटिव सेटिग की लड़ाई में कश्मीरी पंडितों को पीछे धकेल दिया गया और जिन्होंने पंडितों का उत्पीडन और नरसंहार किया वे ही उत्पीड़ित की भूमिका में भी खुद को दिखाने लगे ।
तभी तो जब एक जगह अनुपम खेर का किरदार कहता है कि यहूदियों की कहानी तो पूरी दुनिया जानती है, हमारे दुःख-दर्द को कितना लोग जानते हैं ? तब दर्शन कुमार का किरदार कहता है कि आखिर आप लोगों ने दुनिया को कुछ बताया क्यों नहीं ? तब हल्की सी टीस के साथ अनुपम खेर का किरदार कहता है ‘ लोगों ने हमसे कुछ पूछा ही कहाँ ?’ यह संवाद जब स्क्रीन पर आता है तो दिमाग में भी सवालों की झड़ियाँ आने लगती हैं ।
सुना कि किसी ने इस फिल्म को रोकने के लिए याचिका लगाईं थी कि इससे मुस्लिमों की छवि खराब होगी, यह फिल्म तथ्यों को गलत दिखाती है । कुछ ऐसा ही मानना हमारे तमाम बुद्धिजीवी लोगों का भी होता है, पर वे भूल जाते हैं कि घाव छिपाने से घाव ठीक नहीं होते वरन सेप्टिक बन जाते हैं । द कश्मीर फाइल्स ऐसे ही घावों को सेप्टिक से बचाने का एक बेहद उम्दा प्रयास है । आखिर क्यों नहीं हम होलोकास्ट पर बनी तमाम फिल्मों की तरह इसे भी खुले दिल से देखें और इतिहास से कुछ सीख लें ।
हालाँकि जे.एन.यू के चुनाव दिखाना, वहां के प्रोफेसर्स का अलगावादियों से जुड़ाव दिखाना आदि समझ नहीं आया, यह ना भी होता तो काम चलता पर यह तो निर्देशक के ऊपर है कि क्या दिखाना चाहता है । इसी तरह से कहानी का बार-बार फ्लैशबैक में चले जाना और वर्तमान में लौट आना भी कई बार दृश्यों को समझना कठिन बना देता है ।
समग्रता में देखा जाए तो यह फिल्म भारतीय फिल्म इतिहास में दर्ज होगी, इस बात के लिए कि इसने दशकों से उपेक्षित छोड़ दिए गए समुदाय की बात करने का साहस दिखाया । समय मिले तो फिल्म देखना चाहिए….
निर्देशक- विवेक अग्निहोत्री
कलाकार- अनुपम खेर, मिथुन चक्रवर्ती, दर्शन कुमार, पल्लवी जोशी, प्रकाश बेलावड़ी, पुनीत इस्सर, अतुल श्रीवास्तव, चिन्मय मांडलेकर, भाषा सुंबली
एक्टिंग
फिल्म की कास्टिंग के मामले में डायरेक्टर का चयन उनकी कहानी के हिसाब से सटीक बैठता है. मानो एक-एक एक्टर उसी किरदार के लिए बना हो. अनुपम खेर ने पुष्करनाथ के दर्द को बखूबी बयां किया है, वहीं दर्शन एक कंफ्यूज्ड यूथ के रूप में अपने किरदार को पूरी ईमानदारी से जीते हुए दिख रहे हैं. कहानी के विलेन फारूख मल्लिक बिट्टा के रूप में चिन्मय मांडलेकर अपने किरदार को एक लेवल ऊपर लेकर गए हैं, जो फ़िल्म का बेहतरीन हिस्सा साबित हो सकता है. प्रोफ़ेसर के रोल में पल्लवी जोशी काफी प्रभावशाली लगी हैं. इनके अलावा फ़िल्म में मिथुन चक्रवर्ती, अतुल श्रीवास्तव, प्रकाश बेलावड़ी, पुनीत इस्सर भी मायूस नहीं करते हैं.
अंत में मैं यही कहना चाहूंगा किय ये फिल्म सच को दिखाने का एक श्रेष्ठ प्रदर्शन हैं। कलाकारों ने उन घटनाओं को स्वयं जी कर पर्दे पर उतारने की कोशिश की है। यह फिल्म प्रत्येक भारतीय को देखनी चाहिए यह एक बेहतरीन फिल्म है।