“वृक्ष वह कविताएं है,जिनको पृथ्वी ने आकाश के ऊपर लिखा है” – खलील जिब्रान
लगभग डेढ़ सदी पुरानी कहानी है- राजस्थान के गांवों में पर्यावरण संरक्षण का अपना लौकिक तरीका अपनाया हुआ था। सभी देवी देवताओं के नाम से राजस्थान में ओरण(वन भूमि) छोड़े जाते थे। पाबूजी, रामदेवजी, गोगाजी,तेजाजी, झरडाजी,माताजी, मोमाजी,अन्य स्थानीय देवी- देवता व जुंझार जी (गायो व भूमि की रक्षा के लिए शहीद) के नाम पर ये ओरण संरक्षित होते थे। इसलिए लोग उन जगहों से तिनका भी नहीं तोड़ते थे, लकडी काटने का तो सवाल ही नहीं उठता था।
वृक्ष धरा के भूषण है।लेबनान के दार्शनिक खलील जिब्रान ने कहा है – वृक्ष वह कविताएं है,जिनको पृथ्वी ने आकाश के ऊपर लिखा है।वृक्ष से पानी, पानी से अन्न तथा अन्न से जीवन मिलता है।जीवन को परिभाषित करने के लिए जीव और वृक्ष दोनों जरूरी है। जहां वृक्ष होता है,वही जीव होते हैं।यह वैज्ञानिक तथ्य है।यह वृक्ष ही है जो मृदा अपरदन को रोककर मृदा को जोड़कर रखने का काम करते हैं। पहाड़ों को भी सुंदरता इन्हीं से मिलती है। वृक्षों की हरियाली प्रकृति की सुंदरता को बढ़ा देती है। सोचिए यदि नंगे पहाड़ कहीं दिखे तो वह दृश्य कितना भयावह होगा! पहाड़ों का श्रृंगार भी पेड़ पौधे और वहां की वनस्पतियां ही हैं।
वीर प्रसूता राजस्थान की धरा ने न केवल देश पर मरने वाले जांबाज़ ही पैदा किए हैं अपितु वृक्षों के लिए प्राण उत्सर्ग करने वाले स्त्री-पुरुष भी इसी मरुधरा ने जने हैं।
पेड़ों वह हिरण के लिए जान देने वाले विश्नोई :
विश्नोई समाज की स्थापना संत जांबेश्वर ने प्रकृति की रक्षा के लिए ही कि थी। विश्नोई संप्रदाय के संस्थापक जांभोजी (1451 से 1536 ई.)ने अपने अनुयायियों के लिए 29 नियम स्थापित किए थे। 20 और 9 के कारण यह समाज बिश्नोई कहलाया।संत जी के इन नियमों में अधिकांश पर्यावरण के साथ सहकारिता बनाए रखने पर बल देते हैं। वृक्षों को बचाने के लिए अपने प्राणों की आहुति देने की अनोखी घटनाएं संपूर्ण विश्व में संभवत राजस्थान में ही हुई है।राज्य के विश्नोई समाज ने वृक्षों को बचाने के लिए प्राण देने के आदित्य उदाहरण प्रस्तुत किए हैं। इस परंपरा को खड़ाना(साका) कहा जाता है।इस प्रकार का पहला साका संवत 1661 में जोधपुर जिले के रामासनी गांव में हुआ था।जहां दो विश्नोई स्त्रियों करमा एवं गौरा ने खेजड़ी वृक्ष को बचाने के लिए गांव के चौहटे पर अपने प्राणों का बलिदान दिया था। दूसरा साका नागौर जिले में हुआ जब मेड़ता परगने के पोलावास ग्राम में संवत 1700 के चैत्र वदी तीज को राजोद ग्राम में होली जलाने के लिए वृक्ष काटने के विरोध में बुचोजी जी ने तलवार से अपनी गर्दन कटवा दी।
तीसरा एवं सर्वाधिक महत्वपूर्ण साका जोधपुर जिले के खेजड़ली ग्राम में हुआ। यहां भाद्रपद शुक्ल दशमी संवत 1787 को जोधपुर रियासत के अधिकारियों द्वारा खेजड़ी के वृक्ष को काटने से बचाने के लिए सर्वप्रथम एक नारी अमृता देवी ने अपने प्राणों की आहुति दी। उन्हीं का अनुसरण करते हुए उनकी तीनों पुत्रियों व उनके पति ने भी अपनी जान दे दी। इसके पश्चात भी जब जोधपुर रियासत के अधिकारियों की वृक्ष काटे जाने की जिद जारी रही, तो ग्राम वासियों ने अमृता देवी व उसके परिवार का अनुसरण करते हुए अपना बलिदान दिया।कुल मिलाकर गांव के 363 व्यक्तियों ने वृक्ष बचाने के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी। अमृता देवी की स्मृति में पहला खेजड़ली दिवस 12 सितंबर 1978 को मनाया गया। उल्लेखनीय है कि बिश्नोई समाज के प्रवर्तक जांभोजी ने विश्नोई समाज के 29 नियमों में वृक्ष एवं वन्य जीव संरक्षण को शामिल किया है। बिश्नोई समाज ने अपने गुरु जंभेश्वर जी के इन वचनों को चरितार्थ किया है कि-
” जीव दया पालणी, रूख लीला नहीं धावे।
करें रुख प्रतिमाल, खेजड़ा रखत रखावे।”
विश्व का एकमात्र वृक्ष मेला कहां भरता है?
अमृता देवी बिश्नोई की याद में हर साल राजस्थान के जोधपुर जिले के खेजड़ली ग्राम में वृक्ष मेला भरता है।
खेजड़ी को राजस्थान का कल्प वृक्ष कहा जाता है। यह राजस्थान का राज्य वृक्ष भी है। इसलिए हमारी सनातन संस्कृति में इस पेड़ की सदा से पूजा होती आई है। खेजड़ी राजस्थान के मरुस्थल क्षेत्र विशेषकर -जोधपुर,बाड़मेर, जैसलमेर, बीकानेर, चूरू व जालौर जिले में बहुतायत से पाई जाती है।खेजड़ी पर्यावरण संरक्षण को पल्लवित, पुष्पित करने वाली वनस्पति के रूप में भी अहम स्थान रखती है।यह एक बहु- वर्षीय पौधा है।जिस का वानस्पतिक नाम प्रोसोपिस सिनेररिया है।इसे स्थानीय भाषा में जारी,कांडी ,समी आदि नामों से जाना जाता है। खेजड़ी की उपयोगिता को इतने से ही समझा जा सकता है,कि इसकी छाल से पेट के कीड़े मर जाते हैं। और सर्दी,खांसी, जुकाम में राहत मिलती है। खेजड़ी का मुख्य फल सांगरी का इस्तेमाल सब्जी बनाने, अचार बनाने में किया जाता है।
जोधपुर जिले का काजरी संस्थान खेजड़ी पर अनुसंधान का कार्य भी कर रहा है।वृक्ष वायुमंडल के फेफड़े होते हैं।एक खेजड़ी हमें कितना देती है वह कल्पना से बाहर है। अपने जीवन काल में दी गई प्राण वायु(ऑक्सिजन) की कीमत करोड़ से ऊपर जाती है।उसकी पत्तियों का लॉन्ग पशुओं के लिए पौष्टिक आहार है ।ईंधन के लिए उसकी लकड़िया श्रेष्ठ होती है।
यज्ञ में समिधा के रूप में खेजड़ी की लकड़ी ही काम में ली जाती है।वैदिक संस्कृत में खेजड़ी को समी कहते हैं।ऐसा ही बौरड़ी झाड़ी के लिए समझना चाहिए।बौरड़ी को लक्ष्मी का रूप माना जाता है। उसके पत्तों का चारा सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।राजस्थान में देवी- देवताओं के ओरण(रक्षित वन)बोरडीयो के ही है।बद्रीनाथ धाम बोरडीय के प्रतिक की याद दिलाता है,जहां नर- नारायण ने तपस्या कर असुरों का संहार किया था।
आज वायु मंडल का चक्र डगमगा गया है। वायु प्रदूषण इतना बढ़ गया है कि बहुत से नगर शुद्ध सांस लेने योग्य नहीं रह गए है। इन सब को प्रदूषण मुक्त करने के लिए अपने पुरखों के रास्ते के सिवा कोई विकल्प नहीं है।हम अधिक से अधिक वृक्ष लगाकर ही इस प्रकृति को सुरक्षित रख सकते हैं।विज्ञान तो आज विनाशकारी हो गया है।प्रयोगशाला में वायरस बनाए जाने लगे हैं।इन्हें दृढ़ इच्छाशक्ति से स्वावलंबी जीवन शैली से ही मात दी जा सकती है।
हिमाचल प्रदेश के कुल्लू अंचल में जंगलों के संरक्षण की अनूठी परंपरा सदियों से चली आ रही है। यहाँ कुछ जंगलों को देव-वन कहा जाता है।वहां से लकड़ियों को काटना तो दूर समाज के लोग वहां की लकडी या गिरी हुई पत्तियां भी इस्तेमाल नहीं करते। इन जंगलों में पवित्रता का ख्याल रखा जाता है।और लोग यहां शौच को भी नहीं जाते।फौजल सहित आठ जंगल इस तरह की मान्यता से संरक्षित है। इनके नाम भी देवताओं के नाम पर है। लगवैली फॉरेस्ट बीट में फलाणी नारायण जंगल है,तो पास ही में माता फुंगणी और पंचाली नारायण वन। ग्रेट हिमालय नेशनल पार्क में बंजार वैली का कुछ हिस्सा शांगण के साथ लगा हुआ जंगल,मणिकर्ण घाटी में पूलंगा जंगल को देच जंगल के रूप में जाना जाता है।
निष्कर्ष रूप में हम कह सकते हैं कि वन ही जीवन का आधार है। इसलिए प्रकृति के दिए हुए इस अनुपम वरदान को हम सभी को संजो कर रखना है। अधिक से अधिक वृक्षारोपण करना है। क्योंकि यह एक बहुत बड़ी विडंबना है कि जनसंख्या तो बढ़ी है, किंतु वृक्षों की संख्या घटी है।इस पर विचार कर अधिक से अधिक वृक्षारोपण करना है।
Vriksharopan पुण्य कार्य हैं
Thanks
वृक्ष जीवन का आधार है।
Thanks