मौर्य वंश का प्रतापी शासक सम्राट अशोक महान।King Ashoka Of Mauryan Kingdom In Hindi।
भारत के इतिहास में सम्राट अशोक महान बड़ा गौरवशाली नाम है।इसलिए है कि जिन थोड़े से लोगों ने हिंदुस्तान का गौरव बढ़ाया है, उनमें सम्राट अशोक का स्थान सबसे प्रथम पंक्ति में आता है।
सम्राट अशोक चंद्रगुप्त मौर्य का पुत्र था। मौर्य राजा बड़े प्रतापी हुए थे, पर उनमें भी अशोक जैसा कोई नहीं हुआ।इनके पिता का नाम बिंदुसार था। अशोक की माता ब्राह्मण की बेटी थी। बिंदुसार अपने बेटे को उतना प्रेम नहीं करते थे। क्योंकि अशोक कुरूप था। बिंदुसार की इच्छा अपने बड़े बेटे सुसीम को सम्राट बनाने की थी।
जिन दिनों सुसीम तक्षशिला में विद्रोह दबाने गया हुआ था। सम्राट बिंदुसार अचानक बीमार हो गया। अशोक उन दिनों उज्जैन का सूबेदार था। वही अशोक का विदिशा के एक श्रेष्ठि की पुत्री देवी से प्रेम हो गया। वह अत्यंत सुंदर थी।बाद में यह देवी अशोक की पटरानी और महेंद्र तथा संघमित्रा की मां बनी।
अशोक को जब अपने बीमार पिता के बारे में पता चला तो वह उज्जैन से पाटलिपुत्र पहुंचा। पाटलिपुत्र जिसे वर्तमान में पटना कहते हैं।पाटलिपुत्र मौर्य राजाओं की राजधानी थी। पिता के मरते ही अशोक ने सत्ता हथिया ली। यह बात 272 ईसा पूर्व की है। बिंदुसार के 16 रानियां थी तथा 101 पुत्र थे, और अशोक ने अपने 99 भाइयों को मार कर राजगद्दी हासिल की थी, ऐसा कहा जाता है।पर इतिहासकार इस पर विश्वास नहीं करते। हां सुशील से उनकी लड़ाई जरूर हुई थी। इस लड़ाई के कारण 4 साल तक अशोक का सम्राट बनना रुका रह गया था।
बचपन से ही अशोक स्वभाव से क्रूर था।इस कारण लोगों ने उसका नाम ‘चंडाशोक‘ रख दिया था। अशोक के और भी कई नाम थे। उसका एक नाम ‘अशोक वर्धन‘ था।वह कलिंग विजय के बाद ‘धर्माशोक‘ कहलाने लगा था।उन दिनों प्रत्येक राजा का एक अभिषेक नाम अलग होता था, अशोक का अभिषेक नाम शायद ‘प्रियदर्शी‘ था। राजा की उपाधि में उसे देवनाम्प्रिया कहा गया। मगध और शांतावसाद नाम प्रचलित नाम थे।
सम्राट अशोक हिंदुस्तान का एकछत्र सम्राट था। उसे प्रसिद्धि दुनिया का नैतिक स्वरूप बदलने से मिली थी,उसके राज्य विस्तार के कारण नहीं।उसने पूरे एशिया में गौतम बुध का मैत्री और करुणा का संदेश फैलाया। मिश्र व यूनान में भी अपने धर्म दूत भेजे थे। अशोक को राज्य करते करीब 8 साल हो चले थे। महानदी और गोदावरी के बीच समुद्र तट का जो भाग आजकल उड़ीसा कहलाता है। उन दिनों कलिंग कहलाता था।
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अशोक को अपना राज्य फैलाने की इच्छा हुई तो उसने कलिंग राज्य पर चढ़ाई कर दी। कलिंग वाले बड़े स्वतंत्रता प्रिय और साहसी थे। वे डरे नहीं। सामना करने को तैयार हो गए क्योंकि वे गीता का अध्ययन करते थे। घमासान युद्ध हुआ करीब 1 लाख लोग मारे गए। डेढ़ लाख पकड़े गए और इसके कई गुना लोग भूख, रोग आदि की भेंट चढ़ गए। इस महानाश ने अशोक का हृदय परिवर्तन कर दिया। चंडाशोक धर्माशौक बन गया।इसके बाद का सारा जीवन उसने धर्म की सेवा में लगा दिया।
भेरीघोष के बदले उसने धर्म की शिक्षाओं का धर्मघोष स्वीकार किया। अब तक शासन के मंत्री थे, उन्हें धर्म के मंत्री धर्ममहामात्य नियुक्त किए। अब तक सम्राट विजय स्तंभ खड़े करते थे। अशोक ने धर्म स्तंभ बनवाये। दान जीवन का व्रत बना लिया और धनदान से बड़ा धर्मदान चलाया। राज्य विजय के बदले धर्म विजय का डंका बजा दिया।ईरानी आसुरी राजा चट्टानों पर अपनी प्रस्तुति लिखते थे। अशोक ने धर्म के शिलालेखों की भरमार कर दी। उसने युद्ध की राजनीति से अपनी इस धर्म नीति को श्रेष्ठ समझा।
सम्राट अशोक ने देश भर में पशुओं की बलि बंद करा दी एवं आदेश भंग करने वालों को 50 ‘पण’ जुर्माना भरना पड़ता था। सम्राट अशोक ने मनुष्यों के लिए अलग, पशुओं के लिए अलग अस्पताल खुलवा दिए। रास्तों के दोनों और छायादार पेड़ लगवाए। धर्म फैलाने के लिए भिक्षुओ को बाहर भेजने की व्यवस्था की। स्वयं ने भी धर्म यात्रा शुरू कर दी। शिलाखंडों पर धर्म लेख खुदवाने लगा। धर्म यात्रा भी उसकी निराली थी।
पहले तो वह उन स्थानों में गया, जो बुद्ध के जीवन से संबंध थे।फिर देश के सभी महत्वपूर्ण स्थानों का चक्कर लगाया। जहां-जहां गया। पत्थरों पर अपने आदेश,निर्देश व उपदेश छोड़ता गया। जगह-जगह पहाड़ी चट्टान या गुफा पर कोई न कोई यादगार खुदवा दी। जहां चट्टान न होती,वहां बड़ी-बड़ी लाटे खड़ी कर उन पर खुदाई करवा दी। देशभर में स्तंभो, शिलालेखो, स्तूपों, विहारों और गुफाओं का जाल बिछा दिया। यह यादगारी आज भी उसके धर्म प्रेम और प्रजा प्रेम की साक्षी है।
सम्राट अशोक ने कश्मीर में श्रीनगर और नेपाल में देवपाटन यह दो नए शहर बसाएं। अशोक ने सूबेदार तुषाष्य यवन ने सौराष्ट्र में गिरनार में नदी को बांधकर झील बना दी।इतने पुराने युग में झील निर्माण का इतना बड़ा उदाहरण ढूंढे भी कहीं नहीं मिलता। कला के साथ साहित्य ने भी अशोक के काल में बहुत प्रगति की। अशोक ने शिलालेखों की भाषा बहुत प्रभावशाली और ओजपूर्ण रखी थी। ऐसी भाषा साहित्य की प्रगति के बिना पैदा नहीं होती। ग्रंथ रचना भी उन दिनों प्रचुर मात्रा में हुई थी।
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