संत पीपाजी पैनोरमा, झालावाड़
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संत पीपाजी के जीवन का संक्षिप्त परिचय
नाम:- राजर्षि संत पीपाजी।
पिता:- संत पीपाजी के पिता चैहानवंषी खीची शाखा के महाराजा कड़वाराव थे। ये गागरोन गढ़ के शासक थे।
माता:- संत पीपाजी का जन्म भटियाणी श्यामसुन्दर जी की पुत्री लछमावती के गर्भ से हुआ।
जन्म:– संत पीपाजी का जन्मकाल चैत्र पूर्णिमा वि.सं. 1416 (सन् 1359 ई.) माना जाता है।
जन्म स्थान:- संत पीपाजी का जन्म गागरोन गढ़ में हुआ।
विवाह:- राजर्षि पीपाजी के बारह विवाह हुए, जिनमें अंतिम व सबसे छोटी रानी सोलंखणी सीता थी। रानी सीता भी पीपाजी के साथ राजसुख छोड़कर संत मार्ग की ओर प्रवृत्त हुई।
निर्वाण:- संत पीपाजी का निर्वाण वि.सं. 1477 (सन् 1420 ई.) में हुआ माना जाता है।
निर्वाण स्थल:- जीवन के अंतिम समय में पीपाजी गागरोन में गुफा बनाकर रहने लगे। यहीं इन्होेंने देह त्यागी।
वंशज:- बारह वर्ष तक गागरोन पर राज करने के बाद पीपाजी ने राज्य छोड़ दिया। वे निस्संतान थे, अतः राजगद्दी छोड़ते समय उन्होंने अपने भाई प्रतापराव के पुत्र कल्याणराव को गागरोन के शासन का उत्तरदायित्व सौंप दिया।
संत पीपाजी का चरित्र:- पीपाजी सदैव भगवद्भक्ति में तल्लीन रहते थे। वंष परम्परा के अनुसार पीपाजी साकला देवी के उपासक थे। मुक्ति के मार्ग की खोज में देवी का निर्देष पाकर ये वैष्णवाचार्य रामानंद जी की शरण में काषी आये और परम वैष्णव बन गए।
पीपाजी बहुत क्रान्तिकारी संत थे। उन्होंने पर्दाप्रथा का घोर विरोध किया। नारी-अस्मिता को स्थापित कर उनको भगवद्भक्ति करने की अधिकारिणी घोषित किया। तेली, कंडेरा व हरिजन समुदाय के लोगों को दीक्षित कर दलितोद्धार का महान कार्य राजर्षि पीपा ने किया। शीलव्रत धारण करके गृहस्थ में ही रहकर भगवद्भजन करने का मार्ग प्रशस्त किया। अनेक राजपूतों को लड़ने-भिड़ने से विरतकर शांति से जीने का रास्ता बताया।
संत पीपाजी का सामाजिक/साहित्यिक/आध्यात्मिक योगदान:-
स्वामी रामानंद से दीक्षित होने के उपरांत पीपाजी ने राजपाट छोड़कर अपनी पत्नी सीता के साथ भ्रमण आरंभ किया। साधुवृत्ति और उपदेषों द्वारा जनता को सत्संग का लाभ प्रदान करते हुए भक्ति का प्रसार किया। उन्होंने राजस्थान, गुजरात, मालवा, महाराष्ट्र आदि क्षेत्रों में भ्रमण कर टोड़ा मे अपना निवास बनाकर साधना आरंभ की। पीपाजी की गणना रामानंद जी के प्रमुख षिष्यों में की जाती है। पीपाजी की रचनाओं का यद्यपि कोई संग्रह नही मिलता है, किन्तु दादूपंथी सन्तों ने अपनी पंचवाणी-पुस्तकों में इनके पदों का संकलन किया। इनके पद एवं रचनाएं कुछ हस्तलिखित प्रतियों में भी प्राप्त हुए है। गुरुग्रंथ साहब ने भी पीपाजी के पदों को संकलित किया गया है।
पीपाजी के जीवन की प्रमुख घटनाएं:-
1. द्वारिका भगवद्दर्षन- कहा जाता है कि संत पीपा ने सीता सहित द्वारका पहुंचकर पंडों से पूछा कि भगवान कहां मिलेंगे। पंडों ने उन्हें बावला समझकर ‘समुद्र में होंगे’ ऐसा कह दिया। कृष्ण-रुकमणि के दर्शन की उत्कट लालसा में संत पीपा व उनकी पत्नी सीता समुद्र में कूद गए। इनकी भक्ति-भावना देखकर भगवान् ने प्रत्यक्ष दर्शन दिए और नौ दिन दोनों पति-पत्नी समुद्र में भगवत् सान्निध्य में रहे। अंततः भगवान् ने पीपा को ब्रह्मज्ञान देकर पुनः भूतल पर भेज दिया।
2. सीता जी का अपहरण- द्वारका से गागरोन की ओर आने पर इनको एक पठान मिला, जो सीता के रूप पर मोहित हो गया। उसने पीपाजी से सीता को छीन लिया। दोनों पति-पत्नी ने इस घोर विपत्ति के समय गोविन्द का स्मरण किया। भगवान् ने पठान को दण्ड देकर सीता को उसके चंगुल से छुड़ा दिया।
3. हिंसक बाघ को उपदेष देना– द्वारिका से लौटते हुए पीपाजी रास्ता भटक गए। निर्जन वन से जाते समय मार्ग में उन्हें एक सिंह मिला। जिसने पीपा दंपती पर आक्रमण कर दिया। इनकी भगवद्भक्ति के चमत्कार से शेर पीपा के चरणों में नतमस्तक हो गया और भविष्य में शिकार न करने की प्रतिज्ञा की।
4. द्वारका के चंदोवे की आग बुझाना– एक समय जब संत पीपा टोड़ा गांव में सत्संग का लाभ जनता को दे रहे थे, तभी एकाएक वे उठे और अपने हाथों को आपस में रगड़ने लगे। टोड़ा नरेष के पूछने पर उन्होंने बताया कि द्वारका में दीपक से द्वारकाधीष के चंदोवे में आग लग गई थी, सो मैंने बुझा दी। दूत भेज कर ज्ञात किया गया तो यह घटना सत्य निकली। पंडों ने बताया कि रात्रि को संत पीपा स्वयं यहां थे। उन्होंने यहां रात्रि भर कीर्तन किया और चंदोवे में आग लगने पर उसे बुझाया भी।
5. सर्प दंष से ब्राह्मण कुमार की जीवन रक्षा– एक नगर में एक ब्राह्मण के पुत्र को सांप ने डस लिया और उसकी तत्काल ही मृत्यु हो गई। पीपाजी वहां से गुजर रहे थे। ब्राह्मण दंपती बालक को संत पीपा के चरणों में डालकर रोने लगे। संत पीपा ने दया कर ईष्वर से प्रार्थना की और वह बालक जीवित हो गया। इस घटना की स्मृति में यह स्थान लाल बावड़ी के नाम से विख्यात है। इस घटना का उल्लेख जैसलमेर के साधु रामप्रतापजी महाराज, ब्यावर ने अपनी पीपा भक्ति प्रकाष पुस्तक में किया है।
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