प्रतापगढ़ की थेवा कला।THEVA KALA OF PRATAPGARH IN HINDI.

राजस्थान प्रदेश के प्रतापगढ़ कस्बे की प्रसिद्धि कांच पर सोने की नक्काशी के लिए है। राजस्थान का प्रतापगढ़ थेवा कला की वजह से अपना विशिष्ट स्थान रखता है थेवा कला विभिन्न रंगों के कांच पर सोने की मीनाकारी को कहा जाता है।

प्रतापगढ़ की थेवा कला।THEVA KALA OF PRATAPGARH IN HINDI.

इस अत्यंत सुंदर कला में पहले कांच पर सोने की बहुत पतली वर्क लगाकर उस पर बारीक जाली बनाई जाती है, जिसे थारणा कहा जाता है, फिर कांच को कसने के लिए चांदी के बारीक तार से फ्रेम बनाया जाता है जिसे वाड़ा कहते हैं। इसके बाद इसे तेज आग में तपाया जाता है, जिससे कांच पर सोने की कलाति उभर जाती है थेवा कला में आभूषणों के अलावा सजावटी सामान भी बनाए जाते हैं।

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थेवा कला

मेवाड़ की वीर प्रसूता भूमि शौर्य एवं बलिदान के लिए विख्यात है, वही यह क्षेत्र हस्त एवं शिल्प कलाओं में भी विशिष्ट स्थान रखता है। यहां पर बस्सी का खिलौना उद्योग, आकोला की रंगाई-छपाई, पहुना का लौह उद्योग तथा प्रतापगढ़ की थेवा कला का कोई सानी नहीं है। प्रतापगढ़ की थेवा कला को देश में ही नहीं बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी ख्याति मिली है। यही कारण है कि यहां की थेवा कला का नाम इनसाइक्लोपीडिया ऑफ ब्रिटेनिका में भी स्वर्ण अक्षरों में अंकित है।

थेवा कला क्या है?

थेवा कला कांच पर सोने का सूक्ष्म चित्रांकन है। कांच पर सोने की कारीगरी अत्यंत बारिक रमणीय एवं कलात्मक होती है।इसके लिए रंगीन बेल्जियम कांच का प्रयोग किया जाता है।चित्रकारी का ज्ञान इसके लिए आवश्यक होता है। सर्वप्रथम सोने की बारीक चद्दर पर सूक्ष्म चित्रांकन एक नई नक्काशी के साथ किया जाता है। इस कला का कलाकार चित्रकला के पश्चात अनवरत अभ्यास एवं सतत साधना से कांच पर बारीक कला की नक्काशी तथा रेखांकन को अपनी कल्पना शक्ति से चित्रांकन का रूप प्रदान करता है। कला की यह महान तपस्या एकनिष्ठ अभ्यास से ही प्राप्त हो जाती हो पाती है।

अलग-अलग रंगों के कांच पर सोने की चित्रकारी इस कला का मौलिक आकर्षण है। आश्चर्य की बात यह है कि थेवा कला न केवल समूचे भारत बल्कि विश्व में केवल प्रतापगढ़ के एक राज सोनी परिवार तक ही सीमित है। पीढ़ियों से इस राज सोनी परिवार में कांच पर सोना जड़ने का यह कार्य होता आ रहा है,लेकिन 5-6 परिवारों को छोड़कर कोई भी नहीं जानता कि यह स्वर्णशिल्प कार्य किस तरह कीया जाता है। इस कला को अति गोपनीय रखा जाता है। केवल इसी परिवार के पुत्रों को यह कला सिखाई जाती है। पुत्रियों,यहां तक की पत्नियों को भी इस कला से परिचित नहीं कराने की परंपरा है।

थेवा आभूषण बनाने वाले स्वर्णकारों में सुप्रसिद्ध शिल्पकार श्री नाथू सोनी के परिवार को प्रतापगढ़ के तत्कालीन शासक सामंत सिंह ने राज सोनी की उपाधि प्रदान की थी। इसलिए आज भी इन परिवारों को राज सोनी कहा जाता है। इस कला में उल्लेखनीय कार्य करने के लिए प्रतापगढ़ के श्री महेश राजसोनी को पदम श्री प्रदान किया गया। थेवा कला पर नवंबर 2002 में ₹5 का डाक टिकट भी जारी किया गया। राजस्थान थेवा कला संस्थान प्रतापगढ़ को जीआई टैग प्रमाण पत्र भी मिल चुका है।

देश के अनेक कलाओं में से विश्व प्रसिद्ध थेवा कला लगभग 500 वर्ष पुरानी है। प्रतापगढ़ के राज सोनी परिवार में इसका जन्म हुआ था।राजा महाराजाओं ने इस कला की कद्र की और उन्होंने इसे पूरा प्रोत्साहन एवं संरक्षण दिया तथा प्रचार-प्रसार के प्रति भी जागरूक रहें।राजाओं ने इस कला में पारंगत राज सोनी परिवार को जागीर स्वरूप 400 बीघा जमीन भी प्रदान की, तभी से यह परिवार राजकीय संरक्षण में उत्तरोत्तर प्रगति करता रहा। उनकी कला निखरती गई तथा आज भी इसका कोई मुकाबला नहीं है।

राजा महाराजाओं ने अपने विदेशी अतिथियों को थेवा चित्रकारी की कलात्मक वस्तुएं उपहार में दी जिससे यह कला अत्यधिक प्रचलित एवं लोकप्रिय हो गई। समय-समय पर विदेशी लोगों ने थेवा कला का हुनर देख इसकी मानक कीर्ति प्रतिष्ठित की।यही कारण है कि थेवा कला आज भी देश विदेश के संग्रहालयो तथा राज महलों को सुशोभित कर रही है।

थेवा कला के प्रसिद्ध कलाकार|

भारत सरकार ने भी थेवा कला की कलात्मकता को समझा तथा समय-समय पर इस कला के पारंगत एवं महारत प्राप्त राजसोनी परिवार के सदस्यों को राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित भी किया। सन 1970 में श्री राम प्रसाद राजसोनी,सन 1970 में श्री शंकरलाल राजसोनी, 1972 में श्री वेणी राम राजसोनी,1975 में श्री रामविलास राजसोनी,सन 1977 में श्री जगदीश राजसोनी, 1980 में श्री बसंत राजसोनी एवं सन 1982 में श्री राम निवास राजसोनी कलाविद राष्ट्रपति अलंकरण पुरस्कार से सम्मानित किए गए। भारत सरकार के साथ-साथ राज्य सरकारों ने भी इन कलाकारों को समय-समय पर सम्मान देकर प्रोत्साहित किया।

कांच पर सोने के विस्मयकारी शिल्पांगन से निर्मित थेवा कला में एक छोटी-सी अंगूठी से लेकर बड़ी मंजूषा तक बनाई जाती है। गले का हार, पैंडल, इयररिंग, पाजेब, बिछूए, सिगरेट बॉक्स, इत्रदान, पानदान, टाइपिंन,कोट के बटन, कलात्मक तश्तरियां, श्रृंगारदान एवं तस्वीरें बनाई जाती है।मोर की आकृतियां, रासलीला एवं शिकार के दृश्य फूल-पत्ती आदि का कलात्मक चित्रांकन इस कला की उत्कृष्टता को सिद्ध करते हैं।

थेवा कला में अलंकृत आभूषणों का मूल्य धातु का न होकर कलाकार की कला का होता है।इस कला में सोना कम एवं साधना अधिक होती है।यही कारण है कि ये आभूषण महंगे होने के बावजूद लोगों द्वारा व्यापक पैमाने पर बनवाए जाते हैं। थेवा शिल्प की वस्तुओं की सदैव मांग बनी रहती है। स्थानीय एवं विदेशी ग्राहकों के अग्रिम आदेश हर समय रहते हैं तथा ग्राहकों को अपनी वस्तुएं प्राप्त करने के लिए लंबी प्रतीक्षा करनी पड़ती है। अधिकांश वस्तुएं ग्राहकों की मांग एवं रूचि के अनुसार बनाई जाती है।

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