दुर्गा सप्तशती पाठ एवं महिमा।Durga Saptshati Path and Mahima।
।। दुर्गा सप्तशती ।।
भुवनेश्वरीसंहिता में कहा गया है-
“यथा वेदो ह्यनादिर्हि तथा सप्तशती मता।”
अर्थात जिस प्रकार वेद अनादि हैं, उसी प्रकार सप्तशती भी अनादि ही है। व्यासजी ने मानवकल्याण मात्रा से ही मार्कण्डेयपुराण में दुर्गा सप्तशती पाठ प्रकाशन किया है। मार्कण्डेय पुराण के अंतर्गत देवी-माहात्म्य में स्वयं जगदम्बा का आदेश है-
शरत्काले महापूजा क्रियतेया चवार्षिकी। तस्यांममैतन्माहात्म्यंश्रुत्वाभक्तिसमन्वित:।।
सर्वाबाधाविनिर्मुक्तो धनधान्यसुतान्वित:।
मनुष्योमत्प्रसादेनभविष्यतिन संशय:।।
अर्थात् शरद ऋतु के नवरात्र में जो मेरी वार्षिक महापूजा की जाती है, उस अवसर पर जो मेरे माहात्म्य (दुर्गा सप्तशती) को भक्तिपूर्वक सुनेगा, वह मनुष्य मेरे प्रसाद से सब बाधाओं से मुक्त होकर धन-धान्य एवं पुत्र से सम्पन्न होगा।
शरद नवरात्र की ही तरह वसंत नवरात्र में भी दुर्गा सप्तशती पाठ का अतिविशेष महत्व है। नवरात्र में दुर्गा सप्तशती पाठ को पढ़ने अथवा सुनने से देवी अत्यन्त प्रसन्न होती हैं। दुर्गा सप्तशती पाठ उसकी मूल भाषा संस्कृत में करने पर ही उसका सम्पूर्ण फल प्राप्त होता है। श्रीदुर्गासप्तशतीको भगवती दुर्गा का ही स्वरूप समझना चाहिए।
पाठ करने से पूर्व पुस्तक का इस मंत्र से पंचोपचार पूजन करें-
नमोदेव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नम:।
नम: प्रकृत्यैभद्रायैनियता: प्रणता: स्मताम्।।
कलियुग में श्रीमद्भागवतगीता, महाभारत के विष्णुसहस्त्रनाम, दुर्गासहस्त्रनाम और दुर्गा सप्तशती का विशेष माहात्म्य है।
भीष्मपर्वणि या गीता सा प्रशस्ता कलौ युगे।
विष्णोर्नाम सहस्राख्यं महाभारतमध्यगम्।
चण्ड्याः सप्तशतीस्तोत्रंतथा नामसहस्रकम्।।
दुर्गा सप्तशती पाठ मार्कण्डेय पुराण का एक अंश है। दुर्गा सप्तशती में कुल १३ अध्याय हैं, जिसमें ७०० श्लोकों में देवी-चरित्र का वर्णन है। मुख्य रूप से ये तीन चरित्र हैं-
प्रथम चरित्र; प्रथम अध्याय- देवी महाकाली की स्तुति।
मध्यम चरित्र; २ से ४ अध्याय- देवी महालक्ष्मी की स्तुति।
उत्तम चरित्र; ५ से १३ अध्याय- देवी महासरस्वती की स्तुति।
दुर्गा सप्तशती पाठ को सिद्ध करने की अनेक विधियां हैं जैसे की सामान्य विधि, सप्ताह परायण, संपुट पाठ विधि, सार्ध नवचण्डी विधि, शतचण्डी विधि। इसमें सप्ताह परायण विधि अत्यंत सरल है जिसको आप घर पर आसानी से कर सकते हो।
प्रथम दिन दुर्गा सप्तशती शुरू करने से पहले नर्वाण मंत्र “ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे” का १०८ बार पाठ जरूर करें। अर्गला, दुर्गा कवच, कीलक स्तोत्र, देवी के १०८ नाम तथा सर्व कामना सिद्ध प्रार्थना प्रतिदिन पाठ के शुरू में पढ़े। पाठ के अंत में क्षमा प्रार्थना जरूर पढ़ें।
सप्ताह परायण-
यह विधि अत्यंत सरल मानी गई है। इस विधि में-
प्रथम दिन- प्रथम अध्याय,
दूसरे दिन- द्वितीय, तृतीय अध्याय,
तीसरे दिन- चतुर्थ अध्याय,
चौथे दिन- पंचम, षष्ठ, सप्तम व अष्टम अध्याय,
पांचवें दिन- नवम, दशम अध्याय,
छठे दिन- ग्यारहवां अध्याय,
सातवें दिन- द्वादश एवं त्रयोदश अध्याय का पाठ करके एक आवृति सप्तशती की होती है। अष्टमी को हवन होता है।
वृद्धिपाठ-
श्रीदुर्गासप्तशती पाठ की एक विशेष विधि भी है, जिसे वृद्धिपाठ कहते हैं। ये अपेक्षाकृत काफी श्रमसाध्य है, किन्तु आनुष्ठानिक समय कम लगता है और महत्ता अत्यधिक है। ये सप्तमी, अष्टमी और नवमी सिर्फ तीन दिनों का अनुष्ठान है। सप्तमी को दो पाठ, अष्टमी को तीन पाठ एवं नवमी को चार पाठ करना होता है। इस प्रकार तीन दिनों में नौ पाठ पूरा होता है । विशेष परिस्थियों में साधक इस अनुष्ठान को सम्पन्न कर सकते हैं।
दुर्गा पाठ में अत्यंत आवश्यक सावधानियाँ-
दुर्गा सप्तशती पाठ में शुद्धि का विशेष ध्यान रखें। शरीर शुद्धि, मन शुद्धि, स्थान शुद्धि, आसान (बैठने वाला) शुद्धि, मुँह/जिह्वा शुद्धि।
सप्तशती की पुस्तक को हाथ में लेकर पाठ करना वर्जित है। अत: पुस्तक को किसी आधार पर रख कर ही पाठ करना चाहिए।
मानसिक पाठ नहीं करें वरन् पाठ मध्यम स्वर से स्पष्ट उच्चारण सहित बोलकर करना चाहिए। अध्यायों के अंत में आने वाले ‘इति’, ‘अध्याय:’ और ‘वध’ शब्दों का प्रयोग वर्जित है।
दुर्गा सप्तशती का पाठ करते समय निम्नलिखित क्रम का ध्यान रखना चाहिए-
कवच, अर्गला, कीलक, रात्रि-सूक्त, न्यास सहित नवार्ण-मन्त्र का १०८ जप, दुर्गा-सप्तशती के १३ अध्यायों का पाठ, न्यास सहित नवार्ण-मन्त्र का १०८ जप, रहस्य-त्रय (प्राधानिक, वैकृतिक और मूर्ति-रहस्य) का पाठ, क्षमा-प्रार्थना-स्तोत्र तथा जप-समर्पण।
यदि विन्ध्य पर्वत के दक्षिण एवं दंडकवन से पूर्वोत्तर देशो में पाठ करना हो तो इसके लिए चिदंबरम संहिता में लिखा है-
अर्गलं कीलकं चादौ पठित्वा कवचं पठेत्।
जप्या सप्तशती पश्चात् सिद्धिकामेन मन्त्रिणा।।
अर्थात पहले अर्गला, फिर कीलक तथा अंत में कवच पढ़ना चाहिए।
किन्तु यदि विन्ध्य पर्वत के उत्तरदेशो में निवास करने वाले है तो उनका विधान अलग है जैसा की योग रत्नावली में लिखा है-
कवचं बीजमादिष्टमर्गला शक्तिरुच्यते।
कीलकं कीलकं प्राहुः सप्ताशत्या महामनो।।
अर्थात कवच बीज है जिसका पहले रोपण होना चाहिये। अर्गला उसके तने में होने वाला रस संचार है जो अंकुरण के बाद होगा। जिसे ऊर्जा या शक्ति कहा गया है। कीलक कील है जो इसके समापन को पूरा करता है।
।। ॐ दुर्गादेव्यै नमो नमः ।।
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