दानवीर कर्ण और दधीचि से भी महान है ये वृक्ष
हिंदू धर्म में दान, बलिदान, आत्मदान और सर्वस्व दान की गौरव गाथा भरी पड़ी है। कर्ण, दधीचि, हरिश्चंद्र, मोरध्वज, बली और वाजिश्रवा के त्याग और बलिदान से इतिहास के पन्ने भरे पड़े हैं, तो महापुरुषों के प्रति श्रद्धा से मस्तक झुक जाता है। समाज के लिए जीवन उत्सर्ग कर देने वालों के प्रति यह सम्मान कोई बड़ी बात नहीं है। ऐसा करना तो जीवन का मुख्य कर्तव्य होना ही चाहिए। इस दृष्टि से इन पेड़ों की त्याग-वृति भी कुछ कम नहीं है। जड़ से लेकर फल, फूल तक सर्वस्व समाज के लिए होम देने की पुण्य साधना के प्रति जितनी श्रद्धा व्यक्त की जाए थोड़ी है।
कदाचित यह पेड़ पढ़े-लिखे होते और लेखनी चलाने की क्षमता रही होती, तो उनके इतिहास में भी ऐसी करोड़ों गौरव गाथा लिखी गई होती। किस वृक्ष ने 100 वर्ष तक करोड़ों रुपए के फल दिए इसका उल्लेख होता, किसी की 1000 वर्ष तक निरंतर छाया, औषधि, फूल, लकड़ी, छाल आदि देने का उल्लेख होता। और तब हम भी साधुवाद दिए बिना ना रहते। सचमुच वृक्षों ने जो वरदान मानवता को दिए हैं एवं दे रहे हैं और आगे भी देते रहेंगे। मनुष्य उनका कभी भी ऋण नहीं चुका पाएगा।
पेड़ होते हैं फसलों के रक्षक
पहले लोगों के पास जोत के लिए जमीनों की कमी थी, पर इतनी सी जमीन से ही काफी अन्य पैदा हो जाता था। अब जंगलों को काट कर अधिक जमीन कर ली गई है,और फसलें भी काफी अच्छी होती है। फिर भी अनाज की पर्याप्त मात्रा उपलब्ध नहीं हो पाती है। इसका कारण भी वृक्षों को काटा जाना और वनों को साफ कर देना है। जिससे फसल के शत्रुओं की संख्या बहुत अधिक बढ़ गई है। पहले जंगल अधिक थे। चूहे, जंगली जानवर, चिड़िया सब उन जंगलों के पेड़-पौधों से खाद्य सामग्री प्राप्त कर लिया करते थे। खेतों में घुसने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती थी। अब चूहे, चिड़िया, जंगली बिलाव, नीलगाय, सियार, जंगली सूअर, घरेलू जानवर सब घात निकालकर खेत में खड़ी फसलों पर ही हमला करते रहते हैं। जिससे अन्न का बहुत बड़ा भाग इनके द्वारा नष्ट हो जाता है।
हमारे वृक्षों की जब से पहरेदारी नष्ट हुई, अन्न संकट तभी से जोर पकड़ता जा रहा है। सर्दी, गर्मी और वायु के तापमान में संतुलन रखने का कार्य भी ये वृक्ष ही करते हैं, और इसका भी प्रत्यक्ष रूप से कृषि पर बुरा प्रभाव पड़ा है। अब इस दिशा में नई-नई परेशानियां पैदा हो रही है।सर्दियों में कड़ाके की शीत से पाले की लहर को रोकने की बहुत बड़ी जिम्मेदारी यह वृक्ष निभाते थे।पर अब इनके बहुतायत से कटने का यह परिणाम हो रहा है कि हमारी फसल के एक बहुत बड़े हिस्से को शीतलहर खा जाती है, या फिर कड़ी धूप में बीज अपनी अवधि से पहले ही सुख कर हल्का पड़ जाता है। प्रकृति की सर्दी-गर्मी में संतुलन बनाए रखने के लिए भी वृक्षों की सघनता अनिवार्य है।
वृक्ष है पक्षियों के आश्रय स्थल
गर्मियों की सांझ में जब वृक्षों में नई कोंपलें फूटती और नए फल आते हैं, तो उनमें पक्षियों का चहचहाना, कलरव करना, किलकारी भरना बड़ा मनोहर लगता है। प्रातकाल जल्दी उठने के लिए किसानों के पास घड़ी नहीं होती, तो समय की सूचना देने का काम भी यह बेचारे छोटे छोटे पक्षी कर देते थे।
4:00 बजे तड़के से ही चहचहाने लगते हैं, मानव प्रात:काल की ईश्वरीय वंदना कर रहे हो। पक्षी चहचहाते और किसानों ने अपने बिस्तर छोड़े और अपने काम पर चल पड़े। शहरों में भी बड़े-बड़े पेड़ों पर प्रात काल और सायंकाल पक्षियों का चहचहाना बड़ा भला प्रतीत होता है,और इससे इन संध्याकालो में अपना काम, निद्रा और आलस्य त्यागकर परमात्मा की उपासना की प्रेरणा मिलती है। जिसके द्वार पर इस प्रकार पक्षियों के आश्रय स्थल वृक्ष विद्यमान हो उन्हें अपने आप को सौभाग्यशाली मानना चाहिए।
वृक्ष देते हैं शीतलता और सुखद छाया
गांव हो या वन कठिन धूप में घने वृक्षों की छाया बड़ी सुखद मालूम लगती है। देहात में लोग गर्मियों की दोपहरी में वृक्षों के नीचे ही गुजारते हैं। ओस से बचाव के लिए भी लोग रात में वृक्ष के नीचे सोते हैं। नीम के वृक्ष का महत्व इस दृष्टि से बहुत अधिक है। नीम की विशेषता यह है कि जहां इसकी छाया बहुत शीतल होती है,वहां यह रात में भी ऑक्सीजन ही प्रदान करता है। जबकि दूसरे प्राय सभी वृक्ष रात में स्वास-प्रसवास की क्रिया में परिवर्तन कर देते हैं।
भारतवर्ष के गांवों में अभी भी अधिकांश घरों के सामने नीम के वृक्ष देखने को मिलते हैं। यह आश्चर्य है कि नीम संसार में केवल भारतवर्ष में ही पाया जाता है। बड़ी-बड़ी बारात ठहराने, सभाएं आयोजित करने तथा विद्यालय चलाने के लिए बहुत से गांवों में आज भी पेड़ों की छाया का ही उपयोग किया जाता है। नीम और बरगद के पेड़ इनमें मुख्य है। बरगद के कोई-कोई पेड़ तो 2000 वर्ष तक की आयु के होते हैं, और इनका फैलाव इतना विस्तृत होता है, कि उनके नीचे कई हजार व्यक्ति तक बैठ सकते हैं। गर्मी के मौसम में बेचारे पशुओं को दोपहर में विश्राम करने का कोई उपयुक्त स्थान नहीं होता है, उन्हें यह पेड़ ही शरण देते हैं। जलाशयों के किनारे पीपल और बरगद के वृक्षारोपण करने का पूर्वजों का यही उद्देश्य रहा है, कि जेठ-वैशाख की तपती धूप और लू में पशु-पक्षी दोपहर में पानी पीकर वही सोकर वही विश्राम कर सके। जीवो के प्रति इस प्रकार की दया भावना भारतीय संस्कृति के अनुरूप है। इस परंपरा को अभी भी हमें जीवित रखना चाहिए।