जिन खोजा तिन पाईयाँ। JIN KHOJA TIN PAAIYAN।

जिन खोजा तिन पाईयाँ। JIN KHOJA TIN PAAIYAN।

आपने सीता हरण की कथा सुनी होगी। वह गाथा स्मरण रखने योग्य है कि सीता हरण के उपरांत जब रावण को परास्त करने का प्रश्न सामने आया, तो भगवान राम के द्वारा भेजा गया निमंत्रण उन दिनों के राजाओं और संबंधियों तक ने अस्वीकार कर दिया था। पर सुदृढ़ संकल्पों के अधूरे रहने से तो दिव्य व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह लगने की स्थिति आती है, वह भी तो अंगीकृत नहीं किया जा सकता है।

“जिन खोजा, तिन पाइयां” वाली उक्ति के अनुरूप खोज की गई तो रीछ-वानरों में से भी ऐसे मनस्वी निकल पड़े जो आदर्शों के निर्वाह में बड़े से बड़ा जोखिम उठाने के लिए तैयार थे। उनकी एक अच्छी खासी मंडली इस कार्य को करने के लिए कटिबद्ध होकर आगे आ गई। बंदरों ने लकड़ी-पत्थर एकत्रित किए, रिछो ने इंजीनियर की भूमिका निभाई और समुद्र पर रामसेतु बन कर खड़ा हो गया।

भगवान उन्हीं की सहायता करता है जो अपनी सहायता आप करते हैं। प्रतिकूलता हटती है और अनुकूलताए जुटती चली जाती है। लंका विजय और श्री राम की अवध वापसी वाली कथा सर्वविदित है। सीता भी अनेक बंधनों से छुटकारा पाकर वापस आ गई। यहां दो निष्कर्ष निकलते हैं-एक यह कि राम की प्रतिभा पर विश्वास करके वरिष्ठ वानर भी उत्साह और साहस से भर गए थे। अथवा राम दल के मुर्धन्य ने सामान्य स्तर के बंदरों को भी प्राण चेतना से ओतप्रोत कर दिया था। और समर्थ व्यक्तियों की एक अच्छी खासी मंडली बन गई थी। दूसरी और समृद्ध शासन अध्यक्ष भी रावण की शक्ति और अपनी दुर्बलता को देखते हुए डर गए थे और झंझट में पडने से डरकर कन्नी काट गए थे। निष्कर्ष यही निकलता है कि परिष्कृत प्रतिभा दुर्बल सहयोगियों की सहायता से भी बड़े से बड़े काम संपन्न कर लेती है। जबकि डरकर समर्थ व्यक्ति भी हाथ पैर फुला बैठते हैं। 

राणा प्रताप के सैनिकों में अधिकांश आदिवासियों का ही पिछड़ा समझा जाने वाला समुदाय प्रमुख था। लक्ष्मीबाई रानी ने घर के पिंजरे में बंद रहने वाली महिलाओं को भी प्रोत्साहन देकर युद्ध क्षेत्र में वीर सैनिकों की तरह ला खड़ा किया था। रानी लक्ष्मीबाई ने तो अपने समय के दुर्दांत दस्यु सागर सिंह को लूटमार करके भागते समय केवल अपनी सहेली सुंदर के सहयोग से बंदी बनाकर दरबार में खड़ा कर दिया था। उनकी मनस्विता के समक्ष उसका सारा दुस्साहस ढह गया। रानी ने अंततः उसे अपना सहयोगी बनाकर उसकी प्रतिभा का उपयोग अपनी सेना की शक्ति बढ़ाने में किया। 

साधारण लोगों की प्रतिभा उभार कर साहस के धनी लोगों ने बड़े-बड़े काम करा लिए थे। चंद्रगुप्त बड़े साम्राज्य के दायित्व संभालने के योग्य अपने को मान नहीं रहा था। पर चाणक्य ने उसमें प्राण फूंके और अपने आदेशानुसार चलने के लिए विवश कर दिया। अर्जुन भी महाभारत की बागडोर संभालने में चकपका रहा था पर कृष्ण ने उसे वैसा ही करने के लिए बाधित कर दिया जैसा कि वे चाहते थे। समर्थ गुरु रामदास की मनस्विता यदि उच्च स्तर की नहीं रही होती तो शिवाजी की परिस्थितियां गजब का पराक्रम करा सकने के लिए उद्यत न होने देती। रामकृष्ण परमहंस ही थे जिन्होंने विवेकानंद को एक साधारण विद्यार्थी से ऊंचा उठाकर विश्व भर में भारतीय संस्कृति का संदेश वाहक बना दिया। दयानंद की प्रगतिशीलता के पीछे विरजानंद के प्रोत्साहन ने कम योगदान नहीं दिया था। साथियों और मार्गदर्शको की प्रतिभा जिस किसी पर अपना आवेश हस्तातंरित कर दे, वहीं कुछ से कुछ बन जाता है।

औजारों-हथियारों को ठीक तरह काम करने के लिए उनकी धार तेज रखने की सदैव आवश्यकता पड़ती है। इसके लिए उन्हें पत्थर पर रगड़ कर तैयार करने की आवश्यकता पड़ती है। पहलवान भी चाहे जब दंगल में जाकर कुश्ती नहीं जीत लेते, इसके लिए उन्हें अखाड़े में निरंतर अभ्यास करना पड़ता है। प्रतिभा भी एका-एक परिष्कृत स्तर की नहीं बन जाती, इसके लिए आए दिन कठिनाइयों से जूझना पड़ता है। और संस्कारी आदर्शवादीता के अभीवर्धन का प्रयास निरंतर जारी रखना पड़ता है। समाज सेवा के रूप में कोई व्यक्ति समाज का भला अगर करना चाहता है तो उसे निरंतर अपने गुणों में विकास करना होगा। अपने गुणों का परिमार्जन करना होगा।

बच्चे अपने प्रयास से रेगने और खड़े होने का प्रयत्न करते हैं। तभी वह चलने और दौड़ने में समर्थ होते हैं। अपने आपको व्यक्तित्व के हर पक्ष को समुन्नत बनाने के लिए निरंतर अवसर तलाशने और  प्रयत्न करने पड़ते हैं। इस अवसर पर आत्मनिरीक्षण, आत्मसमीक्षा, आत्म सुधार और आत्मविकास के लिए अपने दिनचर्या में ही प्रगतिशीलता का अभ्यास करना होता है। तो उनके परिशोधन के लिए भी श्रमशीलता, शिष्टता, मितव्ययिता, सुव्यवस्था और सहकारिता की प्रवृत्तियों को उन सब के अभ्यास में उतारने के लिए कुछ कारगर कदम उठाने पड़ते है अन्यथा ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे ‘भर बन जाने से उपहास, तिरस्कार के अतिरिक्त और कुछ हाथ नहीं लगता। अपनी योग्यता क्षमता बढ़ा लेने के उपरांत ही यह बन पड़ता है कि दूसरों पर इच्छित प्रभाव डाला जाए और उन्हें उठने बैठने में सक्षम बनाया जाए। रेल का इंजन स्वयं समर्थ होता है और अपने साधनों से गति पकड़ता है। तभी उसके साथ जुड़े हुए पीछे वाले डिब्बे भी गति पकड़ते हैं। इंजन की क्षमता यदि अस्त-व्यस्त हो जाए, तो फिर वह रेल लक्ष्य तक पहुंचना तो दूर, दूसरी रेलों का आवागमन भी रोक कर खड़ी हो जाएगी।

दूसरों की सहायता मिलती तो है पर उसे प्राप्त करने के लिए अपनी पात्रता को विकसित करने के लिए असाधारण प्रयत्न करने पड़ते हैं। पात्रता ही सफलता जैसे पुरस्कार साथ लेकर वापस लौटती है। वर्षा ऋतु कितने ही दिन क्यों न रहे, कितनी ही मूसलाधार वर्षा क्यों न बरसे, पर अपने पल्ले उतना ही पड़ेगा जितना कि बर्तन का आकार हो अथवा गड्ढे की गहराई।  उन दिनों सब जगह हरियाली उगती है, पर चट्टानों पर एक तिनका भी नहीं उगता। उर्वरता न हो, तो भूमि में कोई बीज उग़ेगा ही नहीं। छात्रों को अगली कक्षा में जाने व  पुरस्कार जीतने, छात्रवृत्ति पाने का अवसर किसी की कृपा से नहीं मिलता। उनकी परिश्रम पूर्वक बढ़ी हुई योग्यता ही काम आती है।

प्रतियोगिताओं में परिष्कृत होने वाले किसी का अनुग्रह मिलने की आस नहीं लगाए रहते बल्कि अपनी दक्षता को विकसित करके बाजी जीतने वाले सफल व्यक्तियों की पंक्ति में जा बैठने की प्रतिष्ठा अर्जित करते हैं। देवताओं तक का अनुग्रह तप की प्रखरता अपनाने वाले ही उपलब्ध करते हैं। बिना प्रयास के तो थाली में रखा हुआ भोजन तक मुंह में प्रवेश करने और पेट तक पहुंचने में सफल नहीं होता।

महान शक्तियों ने जिस पर भी अनुग्रह किया है उसे सर्वप्रथम उत्कृष्टता अपनाने और प्रबल पुरुषार्थ में जुड़ने की प्रेरणा दी है। इसके बाद ही उनकी सहायता काम आती है। कुपात्रों को यह अपेक्षा करना व्यर्थ है कि उन्हें अनायास ही मानवीय या देवीय सहायता उपलब्ध होगी और सफलताओं, सिद्धियों, विभूतियों से अलंकृत करके रख देगी। दुर्बल शरीर पर ही विषाणु की अनेक प्रजातियां चढ़ दौड़ती है। शीत ऋतु का आगमन जहां सर्वसाधारण के स्वास्थ्य संवर्धन में सहायक होता है। वह मक्खी मच्छर जैसे कीटो के समूह को मृत्यु के मुंह में धकेल देता है। चुनाव मैं वही जीतते हैं जिनमें दक्षता प्रदर्शन करने और लोगों को अपने प्रभाव में लाने की योग्यता अधिक होती है। मजबूत कलाइयां ही हथियार का सफल प्रहार कर सकने में सफल होती है। दुर्बल भुजाएं तो हारने के अतिरिक्त और कुछ प्राप्त कर सकने में सफल हो ही नहीं सकती।

भीष्म ने मृत्यु को धमकाया था कि जब तक उत्तरायण सूर्य ना आवे, तब तक इस और पैर न धरना। सावित्री ने यमराज के भैसे की पूंछ पकड़कर उसे रोक लिया था और सत्यवान के प्राण वापस करने के लिए विवश किया था। अर्जुन ने  तीर चलाकर पातालगंगा की धार ऊपर निकाली थी और भीष्म की इच्छा अनुसार उनकी प्यास बुझाई थी। राणा सांगा के शरीर में 80 गहरे घाव लगे थे फिर भी वह पीड़ा की परवाह न करते हुए, अंतिम सांस रहने तक युद्ध में जूझते ही रहे थे। बड़े काम बड़े व्यक्तित्व से ही बन पडते हैं। भारी वजन उठाने में हाथी जैसे सशक्त ही काम आते हैं। बकरों और गधों से उतना बन नहीं पड़ता, भले ही वे कल्पना करते, मन ललचाते या डींगे हांकते रहे।

प्रतिभा जिधर भी मुड़ती है उधर ही बुलडोजर की तरह मैदान साफ करती है। सर्वविदित है कि यूरोप का विश्वविजयी पहलवान सेंडो किशोरावस्था तक अनेक बीमारियों से घिरा, दुर्बल काया लिए फिरा करता था। पर जब उसने अपने मन में विश्व विजयी पहलवान बनने का ठान लिया और कठोर परिश्रम किया, तो वह विश्वविजयी स्तर का पहलवान भी बन गया।

प्रतिभा वस्तुतः वह संपदा है जो व्यक्ति की मनस्विता, ओजस्विता, तेजस्विता के रूप में बहीरंग में प्रकट होती है। यदि प्रसुप्त को उभारा जा सके, स्वयं को खराद पर चढ़ाया जा सके, तो व्यक्ति असंभव को भी संभव बना सकता है। यह अध्यात्म विज्ञान का एक सुनिश्चित सिद्धांत एवं अटल सत्य है।

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