क्रांति दूत अरविंद घोष
पश्चिम बंगाल के कोलकाता शहर में 15 अगस्त 1872 ईस्वी को जन्मे बहुमुखी प्रतिभा के धनी श्री अरविंद घोष के पिता श्री कृष्ण धन घोष एक डॉक्टर थे, और ब्रह्म समाज से जुड़े हुए थे। अरविंद घोष 7 साल की उम्र में ही अपने भाइयों के साथ ब्रिटेन चले गए और उन्होंने महज 18 साल की उम्र में ही आईसीएस की परीक्षा पास कर ली थी। भारत आने पर वह बड़ौदा स्टेट में प्रशासनिक नौकरी करने लगे। लेकिन उनके मन में देश सेवा की भावना कुलांचे मार रही थी। वह भी पर्दे के पीछे से स्वतंत्रता आंदोलन में दिलचस्पी लेने लगे।
बड़ौदा से कोलकाता आने के बाद महर्षि अरविंद पूरी तरह से आजादी के आंदोलन में उतर गए और यहां उनके भाई बारिन घोष ने उन्हें बाघा जतिन,जतिन बनर्जी और सुरेंद्र नाथ टैगोर जैसे क्रांतिकारियों से मिलवाया। अरविंद घोष के विचार बहुत ही क्रांतिकारी थे, ऐसे में उन्होंने लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के साथ कांग्रेस में गरमपंथी धड़े की विचारधारा को भी हवा दी। युवाओं को आजादी और क्रांति की शिक्षा दी और अंग्रेजी दैनिक “वंदे मातरम” का प्रकाशन भी किया। अरविंद का नाम 1905 के बंगाल विभाजन के बाद हुए क्रांतिकारी आंदोलन से जुडा और 1908-09 में अलीपुर बम कांड में मुकदमा चला। कहा जाता है कि जेल में रहने के समय उन्हें विशिष्ट आध्यात्मिक अनुभूति हुई और उनका मन अध्यात्म की ओर उन्मुख हो गया। जेल में उन पर स्वामी विवेकानंद के व्याख्यान का भी गंभीर प्रभाव पड़ा और उनमें योग के प्रति अनुराग पनपने लगा। जेल से निकलने के बाद वह 1910 में चंदन नगर होते हुए पांडिचेरी चले गए। यहां उन्होंने अपने आप को सार्वजनिक जीवन से पूरी तरह अलग रखते हुए आध्यात्मिक साधना और लेखन तक सीमित रखा। 5 दिसंबर 1950 को उनका देहांत हो गया।
हालांकि उनका अंतिम संस्कार नहीं किया गया और आखिरकार 4 दिन बाद 9 दिसंबर को उन्हें आश्रम में समाधि दी गई। श्री अरविंद के विचार आदर्श और आध्यात्मिक दर्शन आज भी बेहद प्रासंगिक और अनुकरणीय है। यही कारण है कि प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने बीते वर्ष 74 वें स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर लाल किले की प्राचीर से भारत की आजादी की लड़ाई में क्रांति के अगुवा रहे श्री अरविंद घोष को न सिर्फ उनकी जयंती पर याद किया बल्कि उन्हें श्रद्धा अंजलि देकर अपने भाषण की शुरुआत की।