आँखों की सुरक्षा कैसे करे।WHAT CAN DO FOR EYE SAFTY ।
आंखे है तो दुनिया खूबसूरत है प्रकृति के मनमोहक दृश्य का स्वाद भी आंखों के जरिए ही होता है। रंगों की छटा का आभास भी हमें आंखे ही कराती है। यानी जो कुछ प्रकृति और जीवन में सुंदर है आंखों के कारण ही आभास होता है। तो आइये हम आंखों की योग्य चिकित्सक से समय-समय पर जांच करवाने के साथ ही नेत्र रोगों के प्रति जागरूकता का प्रचार करें। मोबाइल स्क्रीन अंधेरे में नहीं देखने, आंखों को विश्राम देते समय-समय पर उसकी चिकित्सक से जांच करवाएंगे तो फिर किसी प्रकार की कोई समस्या नहीं रहेगी।
आंखे है तो दुनिया है अन्यथा सभी जगह अंधेरा ही अंधेरा है। इसीलिए शायद कहा जाता है -आंखे है तो जहान है। असल में ये आंखें ही है जिनसे हम रंग बिरंगी दुनिया को देखकर उसकी अनुभूति को व्यक्त कर सकते हैं। आंखों को इसलिए हमारे शरीर का सबसे महत्वपूर्ण अंग माना जाता है। हमें यह संकल्प लेना चाहिए कि हम अपनी आंखों को दुरुस्त रखें। आंखों की सुरक्षा के प्रति जागरूक रहें।
एक अनुमान के अनुसार वर्तमान में 3.7 करोड़ लोग दृष्टिहीन एवं 12.4 करोड़ लोग गंभीर रूप से दृष्टि विकार से पीड़ित है। दृष्टिहीनता उत्पन्न करने वाली स्थितियों के बचाव या त्वरित उपचार से 80% मामलों में अंधत्व से बचा जा सकता है। विश्व के 90% दृष्टिहीन लोग विकासशील देशों में रहते हैं। और यह स्थिति बेहद चिंताजनक है कि विश्व के एक चौथाई दृष्टिहीन लोग भारत में रहते हैं। इसमें भी लगभग 70% दृष्टिहीन लोग भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में रहते हैं। यदि समय रहते आंखों का उपचार किया जाए तो नेत्र रोगों से ही नहीं बल्कि इससे पलने वाले दूसरे भ्रमो से भी निजात पाई जा सकती है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के अनुसार मोतियाबिंद अंधत्व का सबसे बड़ा कारण है। मोतियाबिंद से अंधत्व तो होता ही है दूसरे कई और विकार भी ग्रामीण क्षेत्रों में होते हैं। गांवों में अंधविश्वास के चलते इसी अंधत्व के कारण कई बार नेत्र रोग से जुड़े मरीजों को पागल बताते हुए उनके उपचार के दूसरे तरीके अपनाए जाने लगते हैं। और उसका दुष्परिणाम यह भी होता है कि मरीज ठीक नहीं होता और भ्रांतियां बढ़ती जाती है।
कई बार जब मोतियाबिंद हो जाता है और उसका समय पर उपचार नहीं होता है तो मरीज को वस्तुएं धुंधली, विकृत, पीली या अस्पष्ट तो दिखाई देती ही है साथ ही कई बार दृष्टिभ्रम भी हो जाता है। यानी मरीज को इस प्रकार की चीजें दीवारें हिलती हुई, प्रेत नुमा आकृतियां आदि भी दिखाई देने लगती है। अक्सर ऐसी स्थितियों में मरीज को वृद्धावस्था का असर करार देते हुए यह भी आरोपित कर दिया जाता है कि वह पागल हो गया है जबकि वास्तव में ऐसा होता नहीं है।
गांवों में वृद्धावस्था के बहुत सारे प्रकरण ऐसे होते हैं जिनमें मरीज अपने परिजनों से यह शिकायत करता है कि उसे अनर्गल आकृतियां दिखाई देने लगी है। यह भी कि उसे अपने घर की दीवारें गिरती हुई दिखाई दे रही है तथा दीवारों से आकृतियां बाहर निकल रही है और कई बार ऐसा भी मोतिया पकने के कारण मरीज को दिखाई देता है कि कोई उसके पास आकर उसे परेशान कर रहा है। यह सभी वास्तव में दृष्टिभ्रम की स्थितियां होती है। परंतु लक्षणों से यह तय कर लिया जाता है कि मरीज पर किसी प्रेत आत्मा का असर है या फिर वह पागल हो गया है। नेत्र चिकित्सा की भाषा में यह दृष्टि दोष है और इसे चार्ल्स बोनेट सिंड्रोम(CHARL’S BONET SYNDROME) कहा जाता है।
चार्ल्स बोनेट सिंड्रोम(CHARL’S BONET SYNDROME)
चार्ल्स बोनेट सिंड्रोम के अंतर्गत मरीज बहकी-बहकी बातें करता है। उसे घर में अपने पास आस-पास परछाइयां दिखाई देने लगती है या फिर बहुत कुछ अपने आप ही दृश्य तैरने, दीवार में से कोई छाया निकलती हुई या फिर वस्तुओं के बड़े-बड़े आकार दिखने लगते हैं। और ऐसा लगता है कि जैसे उसके आसपास कोई चल फिर रहा है। उसे यह भ्रम होता है।
ऐसे में जब इस नेत्र रोग का शिकार जब अपने परिजनों से यह सब बातें बताता है तो उन्हें लगता है वह पागलपन का शिकार हो गया है। और इसलिए ऐसे अधिकांश रोग प्रकरणों में मरीज को बजाएं किसी आंखों के चिकित्सक के पास ले जाने के पागलपन का इलाज करने वाले डॉक्टर के पास ले जाया जाता है। इलाज के नाम पर मरीज को नींद की गोली और भ्रम दूर करने संबंधित दवाइयां बताई जाती है ऐसे में मरीज की स्थिति और बदतर होती चली जाती है।
चार्ल्स बोनेट रोग का इतिहास
असल में आंखों की रोशनी जाने से उत्पन्न इस रोग का इतिहास भी रोचक है। सबसे पहले वर्ष 1769 में चार्ल्स बोनट को इस रोग के बारे में पता चला। जब उनके दादा को नहीं दिखने के कारण दृष्टिभ्रम रोग हुआ। बाद में स्वयं को भी जब दृष्टि अंधत्व हुआ तो ऐसा ही अनुभव चार्ल्स को हुआ। बाद में वर्ष 1938 में डे मोरजर ने इस रोग के लक्षण विश्लेषण करते हुए इसे पूरी तरह से अंधत्व के कारण होने वाला रोग बताया। तभी इस बात का भी पता चला कि इस तरह के रोगियों को नेत्र चिकित्सकों की बजाए पागलपन का इलाज करने वालों के पास अधिकतर ले जाया जाता है।
Charles bonnet syndrome गांवो में आम है। इसलिए कि वहां पर आंखों के इलाज के प्रति जागरूकता नहीं है। आमतौर पर 45 से 50 की उम्र के बाद मोतिया पकने की शुरुआत हो जाती है। गांव में इस रोग पर ध्यान नहीं दिया जाता है तो पूरी तरह से अंधत्व होने पर रोगी को दृष्टि से ऐसी अनुभूतियां होती है जो आमतौर पर वास्तव में घटित होती नहीं है। इन्हीं आधार पर पागलपन का इलाज प्रारंभ कर दिया जाता है। इस संबंध में सावधानी रखते हुए नेत्र परीक्षण करवाने की आदत डालने के साथ ही नेत्र स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता सभी स्तरों पर जरूरी है।
यानी आंखे है तो दुनिया खूबसूरत है। प्रकृति की मोहक दृश्यावलियों का स्वाद भी आंखों के जरिए ही होता है। रंगों की छटा का आभास भी हमें आंखे ही कराती है। यानी जो कुछ प्रकृति और जीवन में सुंदर है आंखों के कारण ही अनुभूत होता है। तो आइए अब हम यह तय करें कि आंखों की योग्य चिकित्सक से समय-समय पर जांच करवाने के साथ ही नेत्र रोगों के प्रति जागरूकता का प्रचार करेंगे। मोबाइल स्क्रीन को अंधेरे में नहीं देखेंगे और मोबाइल का इस्तेमाल सावधानीपूर्वक करेंगे। आंखों को विश्राम समय-समय पर देते रहेंगे। समय-समय पर चिकित्सक से जांच भी करवाते रहेंगे तो फिर किसी प्रकार की कोई समस्या नहीं रहेगी।