प्रतिभा से बढ़कर और कोई समर्थता है नहीं। PRATIBHA SE BADHKAR OR KOI SAMARTHTA HAI NAHI
आदर्शवादी प्रयोजन,सुनियोजन, व्यवस्था और साहसभरी पुरुषार्थ परायणता को यदि मिला दिया जाए, तो उस गुलदस्ते का नाम प्रतिभा दिए जाने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
कहते हैं कि सत्य में हजार हाथी के बराबर बल होता है।सच्चाई तो इस कथन में भी हो सकती है; पर यदि उसके साथ प्रतिभा भरी जागरूकता व साहसिकता को भी जोड़ दिया जाए तो सोना और सुगंध के सम्मिश्रण जैसी बात बन सकती है। तब उसे हजार हाथियों की अपेक्षा लाख ऐरावतो जैसी शक्ति संपन्नता भी कहा जा सकता है। उसे मनुष्य जीवन की सबसे बड़ी शक्ति-संपन्नता एवं सौभाग्यशाली भी कहा जा सकता है।
आतंक का प्रदर्शन किसी भी भले-बुरे काम के लिए दूसरों पर हावी होकर उनसे कुछ भी भला-बुरा करा लेने के डाकूओ जैसे दुस्साहस का नाम प्रतिभा नहीं है। यदि ऐसा होता तो सभी आतंकवादी, अपराधियों को प्रतिभावान कहा जाता। जबकि उनका सीधा नाम दैत्य या दानव होता है। दादागिरी, आक्रमण की व्यवसायिकता अपनी जगह काम करती तो देखी जाती है पर उसके द्वारा उत्पीड़ित किए गए लोग शाप ही देते हैं। हर मन में उनके लिए अश्रद्धा ही नहीं, घृणा और शत्रुता भी बनती है। भले ही प्रतिशोध के रूप में उसे कार्यान्वित करते न बन पड़े।
शेर को सवाशेर भी मिलता है। ईट का जवाब पत्थर से मिलता है। भले ही उस क्रिया को किन्ही मनुष्य द्वारा संपन्न कर लिया जाए अथवा प्रकृति अपनी परंपरा के हिसाब से उठने वाले बबूले की हवा स्वयं निकाल दे। यदि प्रतिगामी प्रतिभावान समझे जाते, तो अब तक यह दुनिया उन्हीं के पेट में समा गई होती और भलमनसाहत को चरितार्थ होने के लिए कहीं स्थान ही न मिलता। काया और छाया दोनों देखने में एक जैसी लग सकती है पर उनमें अंतर जमीन आसमान जैसा होता है। मूंछे मरोड़ने, आंखें तरेरने और दर्प का प्रदर्शन करने वालों की कमी नहीं है। ठगो और जालसाजो की करतूतें भी देखते ही बनती है। इतने पर भी उनका अंत कुकुरमुत्तो जैसी विडंबना के साथ ही होता है। इन दिनों तथाकथित प्रगतिशील ऐसे ही अवांछनीय हथकंडे अपनाते हुए देखे जाते हैं। पर उनका कार्यक्षेत्र विनाश ही बनकर रह जाता है। कोई महत्वपूर्ण सृजनात्मक उत्कृष्टता का पक्षधर प्रगतिशील कार्य उनसे नहीं बन पड़ता।
किसी को भ्रम न रह जाए। कोई आतंक को प्रतिभा न समझ बैठे। वह तो उत्कृष्टता के साथ-साथ साहसिककता का नाम है। वह जहां भी होती है। वहां कस्तूरी की तरह महकती है और चंदन की तरह समीपवर्ती वातावरण को प्रभावित करती है।
प्रतिभा में अलौकिक शक्ति होती है। बुद्ध को मारने का षड्यंत्र करते हुए अंगुलिमाल डाकू तलवार हाथ में निकाले उनके पास पहुंचा। आक्रमण करने पर उतारू ही था कि बुद्ध के सामने पहुंचते ही पानी-पानी हो गया। तलवार फेंक दी और प्रायश्चित के रूप में न केवल उसने डाकू का काम छोड़ा वरन बुद्ध का शिष्य बनकर शेष जीवन को धर्म के लिए समर्पित भी कर दिया।
गांधीजी के परामर्श एवं सानिध्य में ऐसी कई प्रतिभाएं निखरी एकत्रित हुई एवं कार्यक्षेत्र में उतरी की उस समूह ने देश के वातावरण में शौर्य व साहस के प्राण फूंक दिए। उनके द्वारा जो किया गया, संजोया गया उसकी चर्चा चिरकाल तक होती रहेगी। देश की स्वतंत्रता जैसी उपलब्धि का श्रेय उन्हें ही जाता है।जिसे गांधी जी के व्यक्तित्व से उभरने का अवसर मिला। उनमें सचमुच में जादुई शक्ति थी। इसीलिए इंग्लैंड के प्रधानमंत्री चर्चित भारत के वायसराय को परामर्श दिया करते थे, कि वह गांधी जी से प्रत्यक्ष मिलने का अवसर न आने दे।उनके समीप पहुंचने से वह उनके जादुई प्रभाव में फंसकर उन्हीं का हो जाता है।
नारद जी कहीं अधिक देर तक नहीं ठहरते थे। पर उनके थोड़े से संपर्क एवं परामर्श से ध्रुव, प्रह्लाद, रत्नाकर आदि कितनों को ही कितनी ऊंचाई तक चढ़- दौड़ने का अवसर मिला। यह हम हमारे ग्रंथों में पढ़ते हैं।
वेदव्यास जी का साहित्य सृजन प्रख्यात है। उनकी सहायता करने गणेश जी लिपिक के रूप में दौड़े थे। भागीरथ का परमार्थिक साहस धरती पर गंगा उतारने का था। कुछ अड़चन आ पड़ी तो शिवजी जटा बिखेर कर उनका सहयोग करने के लिए आ खड़े हुए। विश्वामित्र की आवश्यकता समझते हुए हरिश्चंद्र जैसों ने अपने को निछावर कर दिया। माता गायत्री का सहयोग उस महाऋषि को जीवन भर मिलता रहा। प्रसिद्ध है कि तपस्विनी अनुसूया की आज्ञा पालते हुए तीनों देवता उनके आंगन में बालक बन कर खेलते रहने का सौभाग्य लाभ लेते रहे।
जापान के गांधी ‘कागावा’ ने उस देश के पिछड़े समुदाय को सभ्य एवं समर्थ की श्रेणी में ला खड़ा किया था।
महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी, राजा छत्रसाल आदि के पराक्रम प्रसिद्ध है। जिन्होंने अल्प साधनों से जो लड़ाइयां लड़ी उन्हें असाधारण पराक्रम का प्रतीक ही माना जा सकता है। लक्ष्मीबाई ने तो महिलाओं की एक पूरी सेना खड़ी कर ली थी और समर्थ अंग्रेजों के छक्के ही छुड़ा दिए थे।
चाणक्य की जीवनी जिन्होंने पढी है, वे जानते हैं कि परिस्थितियां एवं साधन नहीं बल्कि मनोबल के आधार पर क्या कुछ नहीं किया जा सकता है। शंकर दिग्विजय की गाथा बताती है कि मानवीय प्रतिभा कितने साधन जुटा सकती और कितने बड़े काम करा सकती है? कुमारजीव ने एशिया के बड़े भाग को बौद्ध धर्म के अंतर्गत लेकर कुछ ही समय में धार्मिक क्षेत्र की महा क्रांति कर दिखाई थी।
नेपोलियन भयंकर युद्ध में फंसा हुआ था। उसके साथ में उसका एक साथी था। सामने से गोली चल रही थी। साथी घबराने लगा तो नेपोलियन ने कहा- डरो मत, वह गोली अभी किसी फैक्ट्री में ढली नहीं है, जो मेरा सीना चीर दे। वह उसी संकट में घिरा होने पर भी दनदनाता हुआ चला गया और एक ही हुंकार में समूची शत्रु सेना को अपना सहायक एवं अनुयायी बना लिया। प्रतिभा ऐसी ही होती है।
शहर के कूडो में से चिथड़े बटोरकर गुजारा करने वाले गोर्की विश्व विख्यात साहित्यकार हो चुके है। यह सब प्रतिभा का ही चमत्कार है।
उन्नति के अनेक क्षेत्र है, पर उनमें से अधिकांश में उठना प्रतिभा के सहारे ही होता है। धनी लोगो में हेनरी फोर्ड, रॉकफेलर, अल्फ्रेड नोबेल, टाटा, बिरला आदि के नाम प्रसिद्ध है। इनमें से अधिकांश आरंभिक दिनों में साधन रहीत स्थिति में ही रहे हैं। पीछे उनके उठने में सूझबूझ ही प्रधान रूप में सहायक रही है। कठोर श्रमशीलता, एकाग्रता एवं लक्ष्य के प्रति सघन तत्परता ही सच्चे अर्थों में सहायक सिद्ध हुई है। अन्यथा किसी को यदि अनायास ही भाग्यवश या पैतृक संपत्ति के रूप में कुछ मिल जाए तो यह विश्वास नहीं किया जा सकता कि उसे सुरक्षित रखा जा सकेगा या बढ़ने की दिशा में अग्रसर होने पर का अवसर मिल ही जाएगा। व्यक्ति की अपनी निजी विशिष्टता है, जो कठिनाइयों से उबरने, साधनों को जुटाने, मैत्री स्तर का सहयोगी बनाने में सहायता करती है। इन्हीं सब सद्गुणों का समुच्चय मिलकर ऐसा प्रभावशाली व्यक्तित्व निर्मित करता है जिसे प्रतिभा कहा जा सकता है। जिसे जहां भी प्रयुक्त किया जाए वहां अभ्युदय का श्रेय सुयोग का अवसर मिल सके।